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पर्यावरण की स्वच्छता का प्रतीकः गिद्ध  
 
 
 

गिद्ध क्या है?
गिद्ध गंदगी दूर करने वाल पक्षी है। यह 22 किस्म के होते हैं जिनमें 15 प्रकार प्राचीन जमाने के एवं 7 प्रकार नए जमाने के सम्मलित हैं। पुरातन काल के गिद्ध एक्सीपिट्रिडी परिवार जबकि आधुनिक काल के गिद्ध केथरटिडी परिवार से ताल्लुक रखते हैं। यह एक अद्भुत प्रकृति की देन एवं प्रवत्ति है कि गिद्ध अपने प्रत्येक बार भोजन गृहण करने के पश्चात स्नान करता है। स्नान के कारण खून आदि उनके पंखों, त्वचा और चोंच पर नहीं लगा रहता। गिद्धों के अनिवार्य स्नान की प्राकृतिक जल श्रोत के पास ही बनाते हैं। जिसमें नदी, नाला, तालाब, झील या बारहमासी कोई भी, जलश्रोत हो सकता है। जहां पर इनकी सुविधाजनक पहुॅच हो।

 

गिद्धों का महत्वः
प्राकृतिक वातावरण में गिद्ध महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। यदि प्रकृति में यह सफाईकर्मी पक्षी न हों तो पूरे विश्व में हड्डियों के अवशेष, मरे हुऐ जानवरों का सड़ा बदबू मारता मांस और अन्य कायिक अंगो का अम्बार लग जायेगा। वास्तव में गिद्ध प्रकृति के अपशिष्टों को नष्ट करने वाले सच्चे सिपाही है। यह मानव समुदाय के परम सेवक हैं, साथ ही यह स्वास्थ्य, आर्थिक गतिविधियों और पर्यावरण के पोषक भी है।

 

गिद्धों की कमी के कारणः

बहुतायत में डिक्लोफेनिक दवा का इस्तेमाल, जिसके फलस्वरूप पानी की कमी, गुदा का खराब होना और अंततः मृत्यु को प्राप्त होना पाया जाता है।

प्राकृतिक रहवासों का ह्रास, जिसमें इनके घोसले और रूटिंग साइड सम्मलित हैं। महानगरों के निर्माण और विस्तार में पेड़ों को काटकर कंक्रीट के जंगलों का विस्तार भी गिद्धों के लुप्तप्राय होने का एक प्रमुख कारण है।

इनके प्रकृतिवासों में उच्च तापमान का घटित होना भी इनकी कमी के लिए उत्तरदायी है।

आजकल गिद्धों की जनसंख्या में लुप्तता के कारण इसके बारे में एक नई ‘‘विषाणु’’ अवधारणा भी प्रस्तुत की जा रही है।

ग्रामीणों द्वारा जहर देकर मांसाहारी वन्य पशुओं का शिकार खासकर सिंह, बाघ, तेंदुआ आदि जो बाद में गिद्धों का ग्रास बनते हैं। जिनसे यह काल-कवलित हो जाते हैं।

कुछ विशिष्ट समुदाय साधारण भोजन के रूप में विशेष पर्व आदि अवसरों पर या रोजमर्रा की जिंदगी में उन्हें अपना भोज्य पदार्थ बनाते हैं। वे न उनके वयस्क बरन उनके अण्डे और चूजों को भी मारकर खा जाते हैं।

ऊॅचे वृक्षों के अंधा-धुंध दोहन, जिन पर इनका रहवास और घोंसले बने होते हैं, के कारण भी इनकी संख्या मे कमी आई हैं।

बूचड़खानों (कत्लगाहों ) आधुनिकीकरण एवं मृत पशुओं एवं उनके जीवित अंग-प्रत्यंगें को एक स्थान पर संग्रहण के प्रतिबंध भी कमी की एक बजह है।

आकाश में उड़ते विमानों एवं पतंग उत्सवों पर पतंगबाजी द्वारा भी गिद्धों को क्षति पहुॅचाते जाती है। भारत में विमानत प्राधिकरण के अंतर्गत भरी जाने वाली उड़ानें बहुतायत में होने से गिद्धों पर भी खतरा मडराने लग गया है।

 

गिद्धों के बचाव के उपायः

विभिन्न गिद्धो की जनसंख्या की डेमाग्राफी।

नई संततियों के प्रजनन एवं उनकी जनसंख्या वृद्धि के लिए नऐ प्रकृतिवासों की स्थापना।

अनुसंधान, समीक्षा एवं सतत् मूल्यांकन की प्रक्रिया।

प्रजनन की सफलता का सतत् अध्ययन-अध्यापन।

बचाव एवं सुरक्षा उपायों को अपनाना/बर्वाद होते घोसलों का पुनर्वास एंव उनकी यथा स्थान स्थापना।

बीमारी या प्राकृतिक आपदा के कारण प्रभावित हुऐ गिद्धों को तत्काल उपचार प्रदान करना।

गिद्धों के लिऐ गाॅव या शहर में गिद्ध रेस्टारेंट, खोलकर उनके आहार की समुचित व्यवस्था।

बूचड़खानों को प्रोत्साहन प्रदान करना।

वन, पशुपालन विभाग, अशासकीय संस्थान (एन.जी.ओ.) आदि से अन्य सहयोग और मदद।

 

रसायन और जलवायु परिवर्तन गिद्ध प्रजाति के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव
इस भोगवादी सभ्यता के युग में हम भौतिकतावादी हो गये हैं। हमारा जीवन पूर्णरूपेण्य अक्रत्रिमता से जुड़ा हुआ है। मनुष्य जितना प्रकृति से दूर रहेगा। उतना ही वह विकृति के समीप आ जायेगा। हमारी दैनंदिन जीवन की नीति और नियति यह हो गयी है कि हम बनावटी बाह्य आवरणों से हमें इस दूषित पर्यावरण में घिरे हुये हैं। हम प्रातः अपना जीवन रसायन की संश्लिष्ट चीजों से प्रारंभ करते है। टूथपेस्ट से सुबह की शुरूआत से रात्रि विश्राम तक कृत्रिम घातक रासायनिक पदार्थ हमारे जीवन साथी बने हैं।

 

पर्यावरण प्रदूषण के कारण जलवायु परिवर्तन की वैश्विक गंभीर समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इसका सीधा प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर हो रहा हे। ऐसा नहीं है कि पर्यावरणीय तमाम विक्रतियों का दुष्प्रभाव केवल मनुष्य झेल रहा है, अपितु इससे समस्त जैव जगत प्रताडि़त है। पूरे विश्व में रसायन का प्रभाव सबसे ज्यादा इन दिनों गिद्धों की प्रजाति पर पड़ रहा है। गिद्ध एक अपमार्जक पक्षी है। गिद्धों की 22 प्रजातियाँ होती है। जिनमें से 15 पूर्वी देशों में एवं 7 पश्चिमी देशों में पाई जाती है। पूर्वी देशों में पाये जाने वाले गिद्ध ऐसीप्रिटाईडी कुल जबकि पश्चिमी देशों में पाये जाने वाले गिद्ध केथ्रटाईडी कुल से संबंधित है।

 

गिद्धों का प्रकृति में अतुलनीय योगदान हैं अगर गिद्ध हमारी प्रकृति का हिस्सा न होता तो हमारी धरती हड्डियों और सड़े मांस का ढेर हो जाती। यह प्रकृति के सफाई कर्मचारी है। गिद्ध समाज को कई प्रकार की सुविधा उपलब्ध कराते है। जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण मृृत शरीर का भक्षण हैं। सवंमित मृत शरीरों का भक्षण करने से गिद्ध हमें कई तरह की जानवरों से फैलने वाली बीमारियों से बचाते है। जैसे कि क्षय रोग, बार्सीलोसिस, ऐन्थ्रेक्स आदि। गिद्ध का बिलुप्त होना हमारी खाद्य श्रृखला के लिये घातक है। क्योंकि गिद्ध हमारी खाद्य श्रृखला का एक महत्वपूर्ण अंग है। प्राकृतिक आपदाओं जैसे कि बाढ़, तूफान, सूखा एवं युद्ध की स्थितियों में मृत शरीरों का भक्षण कर यह मानव की सहायता करते है। गिद्धों की क्रियाकलापों का मानव स्वास्थ्य, आर्थिक गतिविधयों एवं प्राकृतिक गुणों का व्यापक असर होता है।

 

गिद्ध अपनी सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्ताओं के लिए भी जाने जाते है। जैसे कि पारसी धर्म में इनका बहुत महत्व है। गिद्ध प्रजाति को सन 2000 में आई.यू.सी. एन. प्न्ब्छद्ध ने ’’कृटिकली एन्जडेन्जर्ड ’’ घोषित किया है। इसी कारण वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची 01 में इसे शामिल किया गया है। ज्ञातब्य है कि इस अनुसूची में बाघ, सिंह और तेंदुआ जैसे वन्य प्राणियों को संरक्षण की दृष्टि से सम्मलित किया गया है।

 

गिद्धों की कमी का कारण वृक्षों की कटाई, अवैद्य उत्खनन, हवाई अड्डों के निर्माण, सड़क एवं रेल दुर्घटनायें, मृत मवेशियों के पास आवारा कुत्तों की बढ़ती संख्या, अज्ञात बीमारियाॅ और सबसे महत्वपूर्ण और प्रमुख कारण एक राायनिक दवा‘‘ डाईक्लोफिनेक’’ है। पशु चिकित्सा की महत्वपूर्ण व व्यापक उपयोग में ली जाने वाली दवाई ‘‘डाइक्लोफिनेक’’ को भी गिद्धों की प्रजाति के लिये हानिकारक माना है। ‘‘डाइक्लोफिनेक’’ औषधि के कारण गिद्ध प्रजाति का सर्वाधिक सर्वनाश हुआ है। हालांकि भारत सरकार ने इस दवा पर सन 2005 में प्रतिबंध लगा दिया । लेकिन यह मनुष्य के लिये प्रतिबंधित नहीं है। यह एक सर्वश्रेष्ठ दर्द निवारक दवा है। इस कारण इसका उपयोग चिकित्सा जगत में सर्वाधिक होता है। इस दवा के अनेक विकल्प प्रस्तुत किये गये है। लेकिन यह विकल्प कुछ महंगे होने के कारण कारगर सिद्ध नहीं हो पाये।

 

‘‘डाइक्लोफिनेक’’ दवा के इंजेक्शन पशुुओं को लगाये जाते है। मवेशी की मृत अवस्था में जब गिद्ध इसके मांस का भक्षण करते है। तो ‘‘डाइक्लोफिनेक’’ सोडियम के कारण गिद्ध की श्वांस रूक जाती है, शरीर में पानी की कमी हो जाती है और उसकी किडनी फैल होने के साथ शरीर के भीतर सफेद दानेदार निशान बहुतायत में उभर कर आ जाते है। ‘‘डाइक्लोफिनेक’’ की गिद्ध में जांच एक महंगी एवं जटिल प्रक्रिया है। इसके शव परीक्षण के साधन और ‘‘डाइक्लोफिनेक’’ जांच की प्रयोगशाला एवं विशेषज्ञ पशु चिकित्सक देश में कुछ ही जगह उपलब्ध हैं।

 

वर्तमान में ‘‘डाइक्लोफिनेक’’ के दुष्प्रभाव के कारण विश्व में गिद्ध की 97 प्रतिशत प्रजातियाँ लुप्त हो गई है। सामाज का बेहतरीन सफाई कर्मी आज ‘‘डाइक्लोफिनेक’’ के कारण सामाप्ति की कगार पर है। एक घातक रसायन यानि ‘‘डाइक्लोफिनेक’’ के कारण समाज के सच्चे सफाई सेवकों, जटायुराज की प्रजाति पर जीवन का संकट मंडरा रहा हे।

 

इसके अतिरिक्त इसकी सुरक्षा के और अन्य उपाय भी हैं।
इनके आवासों व विशेषकर घोंसले बनाने के सुरक्षित स्थानों व पेड़ों का संरक्षण करना चाहिए, इसके आवासों पर खनन व पेड़ों की कटाई को रोकना चाहिए, सड़क व रेल दुर्घटना में मज्जत जानवरों को तत्काल मुख्य मार्ग से दूर करना चाहिए, जिससे उन्हें खाने वाले गिद्धों को दुर्घटना में मरने से बचाया जा सके, अन्ध विश्वास के कारण गिद्धों को मारा जाना आम बात है, जिसे रोकना अत्यन्त आवश्यक है, गिद्धों के सामूहिक विश्राम स्थल, जिस तरह से बड़े जानवरों के लिये ‘टाइगर प्रोजेक्ट’ एलीफेन्ट प्रोजेक्ट, प्राइमेट प्रोजेक्ट, राइनों प्रोजेक्ट आदि चलाए गए है व उनसे सकारात्मक परिणाम व आंकड़े उपलब्ध हुए हैं। ठीक इसी तरह घायल अवस्था में पाये जाने वाले गिद्धों को तुरंत वन विभाग, पशु चिकित्सालय में प्राथमिक उपचार हेतु पहुॅचाना चाहिये। प्रतिबंधित डाईक्लोफ्रेनिक दवा पर बिक्री पर सख्ती से कानूनी कार्यवाही करना चाहिये। इसके विकल्प मेंलोक्जीकेम को प्रोत्साहित करना चाहिए।

 

डा. जगदीश प्रसाद रावत

 
 
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